आसपड़ौस : अबू नहीं, संविधान पिटा
राकेश अचल
(लेखक ग्वालियर चम्बल क्षेत्र के वरिष्ठ पत्रकार हैं )
महाराष्ट्र विधानसभा मे जो हुआ वह शर्मनाक है। राज ठाकरे के विधायकों ने पूरी दुनियां मे महाराष्ट्र की और उससे बढ़कर इस अखंड राष्ट्र भारत की नाक कटवा दी। उन्होने हिंदी में शपथ लेने पर समाजवादी पार्टी के विधायक अबू आजमी को नहीं पीटा बल्कि पूरे संविधान पर हमला किया है।
भारत के संविधान की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उसने प्रत्येक भारतवासी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रा दी है। भारत मे रहने वाला कोई भी व्यक्ति किसी भी भाषा में लिख सकता है, पढ़ सकता है, बोल सकता है। अभिव्यक्ति की इस स्वतंत्रता की रक्षा के लिए कानून है। कानून के उल्लघंन पर सजा का प्रावधान हैं लेकिन लगता है राजनीति में नए-नए आए राजठाकरे या तो इन कानूनों, सजाओं की परवाह नही करते या फिर वे अनपढ़ है, उनके लिए संविधान की मोटी किताब में काली स्याही में लिखें सोने के अच्छर भैंस के बराबर है।
मराठी मानुष की राजनीति करने वाले राज को उनके चाचा बाल ठाकरे ने जो संस्कार दिए थे वे अब फल फूल रहे है। व्यक्तिगत अस्मिता की रक्षा के लिए मराठी भाषा और मराठी मानुष का इस्तेमाल करने वाले इस युवा तुर्क की समझ में क्यों नही आता कि हाल में विधानसभा चुनावों मे जनता ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को अस्वीकार कर दिया है। दो सैंकड़ा सीटों वाली विधान सभा में राज के केवल एक दर्जन गुर्गे ही विधायक बनकर प्रवेष पा सके है।
दर असल महाराष्ट में राष्ट्र के विरूध्द भावनाएं भड़काने का जो खेल चार दषक पहले शुरू हुआ था, वह रह-रह कर अब भी जारी है, वोटो की राजनीति के आगे नतमस्तक सत्तारूढ़ दल राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में सलंग्न क्षेत्रीय दलों के आगे बौने साबित हो रहे है।
विधानसभा में अबू आजमी पर हमला करने वाले मनसे के 4 विधायको के निलंबन से इस शर्मनाक घटना का पटाक्षेप होने वाला नहीं है। इस घटना की देष व्यापी प्रतिक्रिया होना चाहिए। राजठाकरें के खिलाफ कानूनी कार्रावाई के लिए राज्य सरकार आगे क्यों नहीं आ रही? क्यों राज के फतबों को गैर कानूनी करार नहीं दिया जा रहा? राज के खिलाफ जो काम महाराष्ट्रके महान हिंदी प्रेमियों को करना चाहिए था, वह म.प्र. के हिंदी प्रेमियो ने किया।
मंदसौर की एक अदालत ने एक हिंदी सेवी की प्रार्थना पर संज्ञान लेते हुए राजठाकरे के खिलाफ राष्ट्रभाषा के अपमान का प्रकरण दर्ज कर इस दिषा में पहल की है, लेकिन सवाल यह है कि क्या मंदसौर की अदालत महाराष्ट्र कि इस मराठीदा को सबक सिखा पाएगी?
वस्तुत: अब समय आ गया है जब क्षेत्रवाद तथा भाषावाद के नाम पर होने वालो राजनीति का बहिष्कार किया जाए। यदि यह न हुआ तो आमयी मुबई और आपण महाराष्ट्र का भाव मराठियों को महाराष्ट्र के बाहर परेषानी का सबब बन सकता है।
दक्षिण के हिंदी विरोधी आंदोलन का हश्र सबने देखा है। तमिलनाडु में हिंदी का प्रबल विरोध करने वाले द्रविण पुत्र व्यापार के लिए फर्राटेदार हिंदी बोलते है। कष्मीर मे पष्तो बोलने बालों का पेट हिंदी में बोले बिना भर नहीं सकता। इस मामले में पूर्वी राज्य एक आदर्ष उदाहरण है। पूर्व के किसी भी राज्य में हिंदी को लेकर कहीं कोई दुराग्रह नहीं है, असम का वोडो आंदोलन भी फुस्स हो चुका है। एक दिन यही सब मनसे के मराठी आंदोलन का भी होगा।
मराठी भाषा को लेकर पूरे देष मे किसी को कोई दुराग्रह नही है। मराठी साहित्य का सर्वाधिक अनुवाद हिंदी में हुआ। मराठी सद-संस्कृति और सुसभ्यता की वाहक भाषा है। उसे लेकर राज परेषान क्यों है? राज शायद नही जानते कि भाषाओ का अस्तित्व राजनीतिक आंदोलनों से नहीं संस्कारों से बनता है। साढ़े तीन हजार सालों से तमिल भाषा का अस्तित्व किसी राजनीतिक आंदोलन की वजह से नहीं बल्कि संस्कारों की वजह से है।
बेहतर हो कि राजठाकरे मराठी प्रेम को छोड़ मराठी मानष में षिक्षा, स्वास्थ्य और उनके आर्थिक हको के लिए संघर्ष करें। मराठियों के लिए कष्मीरियों की तरह विषेषाधिकारों की मांग करना बेमानी है। राज भूल जाते है कि महाराष्ट्र के महान नेताओं को राष्ट्र ने अपने सिरमाथे उनके मराठी भाषी होने के कारण नहीं उनकी योग्यताओं के कारण लिया था। लोकसभा अध्यक्ष से लेकर केंद्र सरकार के तमाम महत्व पूर्ण मंत्रालयों की कमान शुरू से महाराष्ट्र के नेताओं के हाथ मे रही। इसके लिए न बालठाकरे साहब के आंदोलन की जरूरत पड़ी न किसी और भाषाई आंदोलन की।
संविधान समिति के प्रमुख डा. भीमराव अंबेडकर से लेकर सुषील षिंदे तक को देष में सम्मान। षिव सेना या महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने ही दिलाया। मराठी भाषी अच्छी तरह जानते है कि महाराष्ट्र के इन बेटो को सम्मान उनकी योग्यता, कर्मठता और राष्ट्र के प्रति निष्ठा से मिला है।
मेरे ख्याल से राजठाकरे के कुव्सित राजनीतिक आंदोलन का विरोध महाराष्ट्र से ही शुरू होना चाहिए। मराठी जनता को समझना चाहिए कि राज उनका हित नही अहित कर रहे है। महाराष्ट्र की अर्थ व्यवस्था में अकेले मराठियों का नही बल्कि पूरे देष की भागीदारी है देष के प्रत्येक राज्य की प्रतिभा से महाराष्ट्र, महा-राष्ट्र बना है। अगर इसे बाधित किया गया तो महाराष्ट्र ''महा-राष्ट्र'' नही रह जाएगा।
महाराष्ट्र को संप्रभु भारत राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़े रखने के लिए सेनाओं की नहीं प्रतिबंध्द राजनीतिक दलो की जरूरत है राज और उध्दव ठाकरे को चाहिए कि वे यदि सचमुच मराठी अस्मिता की रक्षा करना चाहते है तो अपनी-अपनी सेनाओं की पहचान समाप्त कर राष्ट्रीय दलो मे अपने आपको समाहित कर संघर्ष करें।
आज जब पूरी दुनियां बहुत छोटी हो गई है। तब महाराष्ट्र में राजठाकरे के आंदोलन से देष बदनाम ही हो रहा है। आजादी के सत्तर साल बाद भी भारत में भाषा और क्षेत्र के नाम पर आंदोलनों के जीवित रहने से लगता है कि हमारी आजादी या तो अधूरी है, या हम आजदी का मर्म ही नही समझ सके।
समय है जब पूरा देष दुनियां की महाषक्तियों के मुकाबले भारत को ''महान भारत'' बनाने के लिए भाषा और क्षेत्र की संकीर्णताओं से बाहर आकर पूरी ताकत के साथ एक जुट होकर खड़ा हों। इस एक जुटता में जो आड़े आए, उसे तिरस्कृत कर देना ही श्रेयस्कर है फिर चाहे वह राज ठाकरे हो या बालठाकरे। जो राष्ट्र का नही वह ''महाराष्ट्र'' का कैसे हो सकता है? संविधान के आगे सब बराबर है। (भावार्थ)
Rakesh Achal
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